IND vs BAN 1st Test: टीम इंडिया ने इन 3 वजहों के चलते बांग्लादेश को नहीं दिया फॉलो-ऑन
टीम इंडिया ने बांग्लादेश के खिलाफ पहले टेस्ट मुकाबले में फॉलो ऑन नहीं दिया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर यूजर्स सवाल पूछने लगे. चलिए आपको बताते हैं कि भारत ने बांग्लादेश को फॉलो ऑन क्यों नहीं दिया.
IND vs BAN 1st Test: टीम इंडिया (Team India) और बांग्लादेश (Bangladesh) के बीच खेले जा रहे पहले टेस्ट मुकाबले में पहले बल्लेबाजी करते हुए भारत ने फर्स्ट इनिंग में 404 रन ठोके. इसके जवाब में बांग्लादेश की टीम कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई और सिर्फ 150 रनों पर ही सिमट गई. बांग्लादेश के इतने कम स्कोर बनाने के बाद भारत के पास उसे फॉलो ऑन देने का अवसर था, लेकिन टीम ने दोबारा बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया. इसे लेकर सोशल मीडिया (Social Media) पर हर तरफ बहस छिड़ गई. इस लेख में हम आपको बताएंगे कि आखिरकार टीम इंडिया ने फॉलो ऑन क्यों नहीं दिया.
1. गेंदबाजों को मिला आराम
टीम इंडिया के फॉलो ऑन न देने के पीछे एक वजह गेंदबाजों को आराम देना भी हो सकती है. गेंदबाज लगातार डेढ़ दिन से गेंदबाजी कर रहे थे. ऐसे में उनके चोटिल होने की संभावना ज्यादा रहती है.
2. वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप की प्वाइंट्स टेबल में नहीं मिलेगा फायदा
टीम इंडिया फॉलो ऑन देकर बांग्लादेश को 254 रनों से पहले आउट करके इस मुकाबले को एक पारी से जीत सकती थी, लेकिन इससे भी भारत को प्वाइंट्स टेबल में कोई अलग फायदा नहीं मिलता. वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशीप के नियमोंकी मानें तो हर टीम को जीत के लिए 6 प्वाइंट मिलते हैं, चाहे वो एक पारी से जीते या फिर दोनों पारी खेलकर. ऐसे में अगर कोई स्पेशल प्वाइंट्स नहीं मिल रहे हैं तो टीम ने रिस्क लेना सही नहीं समझा.
3. बल्लेबाजों को लय में आने का मिला मौका
टीम इंडिया के फॉलो ऑन न देने के पीछे एक वजह बल्लेबाजों को पिच पर ज्यादा समय बिताने देना भी आप चलती औसत की गणना कैसे करते हैं? हो सकती है. पहली पारी में श्रेयस अय्यर और चेतेश्वर पुजारा ने तूफानी बल्लेबाजी की थी. वहीं, विराट कोहली, केएल राहुल समेत कई बल्लेबाज जल्दी पवेलियन चले गए थे. ऐसे में इस पारी के माध्यम से टीम ने उन्हें अपनी गलती सुधारने का अवसर दिया. टीम ने शानदार खेल दिखाकर 258 रन पर पारी घोषित कर दी.
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क्या आप जानते हैं?
सरदार जाफ़री को 1968 में जब दिल का दौरा पड़ा तो अस्पताल से वापस आ कर डाक्टरों के मश्विरे पर तीन माह के आराम के दौरान उन्होंने अपनी यादों का इम्तिहान लेना शुरू कर दिया। जो शे'र उन्हें बचपन से याद थे उन्हें लिखते गए। स्मृतियों के इस इम्तिहान से एक लंबी सूची तैयार हो गई तब उन्हें ख़्याल आया कि उर्दू अश्आर का एक शब्दकोश तैयार किया जाए और उन्हें संयोग से उस काम के लिए दो साल के लिए फेलोशिप भी मिल गई। उन्होंने "सरमाया ए सुख़न" नाम से उर्दू शायरी की एक शब्दकोश तैयार की जिसमें इक्कीस हज़ार ऐसे शब्दों का चयन किया गया जो उर्दू शायरी में इस्तेमाल हुए हैं और उन्हें उर्दू वर्णमाला के क्रम में संकलित किया और उनकी व्याख्या के साथ साथ उदाहरण के रूप में अश्आर भी शामिल किए। यह काम शब्दकोश लेखन और ऐतिहासिक प्रसंग से बिल्कुल अलग था। "सरमाया ए सुख़न" की लंबी भूमिका भी बहुत दिलचस्प है। उसमें प्रसिद्ध और लोकप्रिय रूपकों का भी एक अध्याय बनाया गया है आप चलती औसत की गणना कैसे करते हैं? जिसका शीर्षक है 'मक़बूल इस्तिआरों का ख़ज़ाना'। सरदार जाफ़री की यह आख़िरी अदबी यादगार है जो उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित नहीं हो सकी। उनका इरादा उसको कई खंडों में लिखने का था। अभी दूसरा ही खंड लिख रहे थे कि मौत ने उन्हें अपनी आग़ोश में ले लिया।
क्या आप जानते हैं?
शाह नसीर की गिनती अठारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध शायरों में होती है। शाह नसीर ने अपनी ज़िंदगी में बेशुमार शे'र कहे मगर अपना दीवान संकलित नहीं किया। जो कलाम कहते उसे एक जगह रखते जाते और जब बहुत सारा कलाम जमा हो जाता तो तकिए की तरह एक लम्बे से थैले में रख देते। घर वालों को निर्देश देते कि इसकी देखभाल करते रहना। शाह नसीर के बहुत से शागिर्द हुए जिनके कलाम को न केवल दुरुस्त करते बल्कि कभी कभी ग़ज़लें भी कह कर देते और मुशायरे पढ़वाते। सख़्त ज़मीनों और मुश्किल रदीफ़ व क़ाफ़िये में शे'र कहना उनका शौक़ था। शायरी की वजह से ही शाह आलम के दरबार में पहुंच हुई। उनका देहांत हैदराबाद में हुआ और उसके बाद उनका दीवान "चमनिस्तान-ए-सुख़न" के नाम से प्रकाशित हुआ। यह मशहूर शे'र उन्हीं से सम्बद्ध है:
ख़्याल-ए-ज़ुल्फ़ दोता में नसीर पीटा कर
गया है सांप निकल तो लकीर पीटा कर
क्या आप जानते हैं?
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सातवीं कक्षा में थे तब उन्होंने आप चलती औसत की गणना कैसे करते हैं? शायरी शूरू की। उनकी पहली कोशिश एक हजो(निंदा) थी। क़िस्सा यूं है कि फ़ैज़ को स्कूल के ज़माने से ही नावेल और शायरी पढ़ने का शौक़ हो गया था। उनके भाई तुफ़ैल अहमद ख़ां जो उन से तीन साल बड़े थे, उनके एक दोस्त ने फ़ैज़ से पूछा, 'तुम शायरी पढ़ते ही हो कि लिखते भी हो।'
फ़ैज़ ने कहा, 'कभी लिखी तो नहीं।'
तब उन्होंने अपने दोस्त छज्जो राम की हजो लिखने की फ़रमाइश की। फ़ैज़ ने अपनी समझ के अनुसार लिख दी। अगले दिन स्कूल में उस हजो की धूम मची हुई थी।नर्म दिल फ़ैज़ को बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे कारण छज्जो राम को हार्दिक कष्ट हुआ होगा। उन्होंने उसे ढूंढ कर उससे माफ़ी मांगी, लेकिन छज्जो राम तो बहुत ख़ुश था उस हजो की वजह से वह स्कूल में मशहूर हो गया। फ़ैज़ ने पंद्रह साल की उम्र में स्कूल में छात्रों की शायरी की प्रतियोगिता में अपनी ग़ज़ल पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।उस प्रतियोगिता के जज मौलवी मीर हसन थे जिन्होंने अल्लामा इक़बाल को भी पढ़ाया था। यही मीर हसन अल्लामा इक़बाल और फ़ैज़ दोनों के साझा उस्ताद थे, जिन्हें शम्सुल उलमा का ख़िताब भी मिला।
क्या आप जानते हैं?
अकबर इलाहाबादी पूर्वी संस्कृति और सभ्यता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अपनी पूरी शायरी में अंग्रेज़ी सभ्यता पर कठोर व्यंग्य से काम लिया मगर स्वयं अपने पुत्र को शिक्षा के लिए लंदन भेज दिया, जिनका नाम इशरत हुसैन था। इशरत हुसैन को भेजते समय बहुत सारी प्रतिज्ञाएं भी लीं कि अपनी प्राच्य प्रम्परा को कभी न भूलना। एक बार इशरत का ख़त आने में बहुत देर हो गई तो अकबर इलाहाबादी ने अपना मशहूर क़तअ लिख भेजा जिसके दो शे'र मुलाहिज़ा हों;
इशरती घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
खा के लंदन की हवा अह्द-ए-वफ़ा भूल गए
पहुंचे होटल में तो फिर ईद की परवा न रही
केक को चख के सिवइयों का मज़ा भूल गए
क्या आप जानते हैं?
उर्दू ज़बान हिंद-आर्याई परिवार के एक सदस्य के रूप में जानी जाती है। इस ज़बान ने हिन्दोस्तान की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को आज तक सुरक्षित रखा है। यहां तक कि भगवत गीता और महाभारत की 50 से अधिक पांडुलिपियां उर्दू ज़बान में मौजूद हैं, उनमें से कुछ रेख़्ता पर भी उपलब्ध हैं, जिन्हें क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।
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