इंदिरा से मोदी तक, जानिए कब डॉलर के मुकाबले 8 से 69 तक पहुंचा रुपया
हम अक्सर डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत घटने या बढ़ने की खबरें देखते या पढ़ते हैं। 1978 में आरबीआई की ओर से देश में फॉरेन करेंसी की डेली ट्रेडिंग को मंजूरी देने के बाद रुपए ने गिरावट का एक लंबा सफर तय किया है। इस दौरान देश में कई प्रधानमंत्री आए और चले गए। मनीभास्कर आपको बता रहा है कि किस पीएम के दौरे में भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले कितना कमजोर हुआ। इंदिरा गांधी भारतीय रुपए के फॉरेन करेंसी मार्केट में प्रवेश करने के बाद इंदिरा गांधी सत्ता में आईं। उनके दौरे में रुपया करीब 30.88 फीसदी गिरा। 14 जनवरी 1980 को इंदिरा ने जब सत्ता संभाली थी, उस वक्त डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 7.9 रुपए थी, जो 31 अक्टूबर 1984 को उनके सत्ता से जाने तक गिरकर 10.34 रुपए आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा प्रति डॉलर हो गई। इंदिरा की 31 अक्टूबर 1984 को हत्या कर दी गई थी। आगे की स्लाइड में जानिए राजीव गांधी के कार्यकाल में कितना गिरा रुपया…
राजीव गांधी इंदिरा के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी 31 अक्टूबर 1984 से दो दिसंबर 1989 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। रुपए के गिरने के मामले में उनका रिकॉर्ड अपनी मां इंदिरा से थोड़ा बेटर रहा। उनके कार्यकाल में रुपया 21.88 फीसदी गिरा। राजीव जब सत्ता मे आए उस वक्त रुपया डॉलर के मुकाबले 11.88 के लेवल पर था। उनके सत्ता से जाने के वक्त रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले गिरकर 14.48 रुपए हो गई।
पीवी नरसिंह राव राजीव गांधी के बाद सत्ता में आए। 21 जून 1991 से 16 मई 1996 तक देश के पीएम रहे। उनके दौंर में डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में 86.39 फीसदी की ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई। राव के सत्ता संभालने के बाद जुलाई 1991 में डॉलर के मुकाबले रुपए का दो बार 9 और 11 फीसदी डेप्रीशिएसन (अवमूल्यन) किया गया। राव के सत्ता में आने से पहले देश भुगतान संतुलन के संकट से जूझ रहा था। राव जब पीएम बने तो डॉलर के मुकाबले रुपए की वैल्यू 17.94 रुपए थी, जो 16 मई 1996 को उनके सत्ता से जाने के वक्त गिरकर 33.44 के स्तर पर पहुंच गई।
अटल बिहारी वाजपेयी आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक देश के पीएम रहे। अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों के मुकाबले उनके दौरे में रुपया सबसे ज्यादा स्थिर रहा। वाजपेयी जब सत्ता में आए तो उस वक्त डॉलर के मुकालबे रुपए की कीमत 42.07 रुपए थी जो उसके सत्ता से जाने के वक्त 45.33 के स्तर पर पहुंच गई। इस हिसाब से देखों तो वाजपेयी के कार्यकाल में डॉलर के मुकाबले रुपए की वैल्यू सिर्फ 7.74 फीसदी ही गिरी।
मनमोहन सिंह वाजपेयी के बाद मनमोहन लगभग 10 साल तक देश के पीएम रहे। 22 मई 2004 से 24 मई 2014 तक उनका कार्यकाल रहा। इस दौरान रुपए की कीमत में 32 फीसदी की गिरावट रिकॉर्ड की गई। मनमोहन जब पीएम बने तो उस वक्त डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 45.37 रुपए थी और जब वह पीएम पद से हटे उस समय रुपए की वैल्यू घटकर 58.62 के लेवल पर पहुंच गई। मनमोहन के दौर में ही दुनिया ने 2008 की मंदी भी झेली।
नरेंद्र मोदी मनमोहन के सत्ता में जाने के बाद से नरेंद्र मोदी देश के पीएम हैं। मोदी जब सत्ता में आए तब डॉलर के मुकाबले रुपए की वैल्यू 58.62 के लेवल पर थी। इस वक्त 69.46 रुपए के लेवल पर है। हालांकि, नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री का पद संभाला था। फिलहाल उनका कार्यकाल चल रहा है।
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब विपक्ष में थे, तब उन्होंने एक ट्वीट किया था. उन्होंने इस ट्वीट में दावा किया कि आजादी के समय पर यानी 15 अगस्त, 1947 को 1 रुपया 1 डॉलर के बराबर था
जुलाई, 2013 में भाजपा नेता के तौर पर पीएम नरेंद्र मोदी ने यह ट्वीट किया था. एक बार फिर रुपये में गिरावट का दौर शुरू हो गया है. आज रुपया फिर डॉलर के मुकाबले 69 रुपये के स्तर पर पहुंच गया है. ऐसे में एक बार फिर 1 रुपया 1 डॉलर के बराबर के दावे की चर्चा होने लगी है. लेकिन क्या सच में ऐसा था?
पहले तो इस दावे की पुष्टि करने के लिए कोई डाटा मौजूद नहीं है. दूसरी बात यह है कि आजादी से लेकर 1966 तक भारतीय रुपये की वैल्यू डॉलर नहीं, बल्कि ब्रिटिश पाउंड के मुकाबले आंकी जाती थी.
सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की तरफ से रुपये के डिवैल्यूवेशन (मुद्रा की वैल्यू कम करना) पर एक पेपर तैयार किया गया है. इस पेपर के मुताबिक ब्रिटिश करंसी 1949 में डिवैल्यूड हुई थी. इसके बाद 1966 में भारतीय मुद्रा यानी रुपया की वैल्यू यूएस डॉलर के मुकाबले आंकी जाने लगी. इस दौरान डिवैल्यूवेशन के बाद रुपया 1 डॉलर के मुकाबले 7.50 रुपये के स्तर पर पहुंच गया था.
1947 में 1 रुपया एक डॉलर के बराबर था. इस दावे पर इसलिए भी विश्वास करना संभव नहीं है क्योंकि 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तो उसने दूसरे देशों से कोई कर्ज नहीं लिया था. ट्रेड भी ना के बराबर था. ऐसे में ये सभंव ही नहीं है कि 1 रुपये 1 डॉलर के बराबर रहा हो.
तीसरी बात, जो इस दावे आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा को झूठा साबित करती है. वह यह है कि 1947 में भारत की वृद्धि दर 0.8 फीसदी थी. ऐसे में भारतीय रुपये को डॉलर के बराबर रख पाना संभव ही नहीं होता.
ये कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो इस दावे के फर्जी होने का सबूत पेश करते हैं. हालांकि फिलहाल नजर इस पर बना कर रखी जानी चाहिए कि रुपया डॉलर के मुकाबले कब तक संभलता है.
अब सवाल उठता है कि आखिर इस पर लगाम कैसे लगाया जा सकता है?
आख़िर डॉलर क्यों है ग्लोबल करेंसी?
जैसा की हम सभी जानते है कि इन दिनों भारत की करेंसी रुपया अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गई है इसे पहले आज तक रुपया डॉलर के मुकाबले कभी इतना कमजोर नहीं हुआ। आज एक रुपये की कीमत 75 डॉलर हो गई है। हालांकि सिर्फ भारत ही नहीं दुनियाभर की कई करेंसी डॉलर के मुकाबले गिरी है जिसका एक मुख्य कारण तेल की बढ़ती कीमत और विश्व बाजार की स्थिति है।
लेकिन आज हम इस बारे में बात नहीं करने वाले है कि रुपया क्यों कमजोर हो रहा है या विश्व बाजार में ऐसी स्थिति क्यों पैदा हो रही है बल्कि आज हम इस बारे में जानकारी देने वाले है कि अमेरिका की करेंसी डॉलर को ही वैश्विक मुद्रा का दर्जा प्राप्त क्यों है यानी कि किसी भी देश की करेंसी को डॉलर के साथ ही क्यों मापा जाता है? क्या इसकी वजह ये है कि अमेरिका इस समय दुनिया का सबसे विकसित देश है या फिर कोई ओर वजह है चलिए आपको बताते है।
Why the Dollar is the Global Currency
आख़िर डॉलर क्यों है ग्लोबल करेंसी? – Why the Dollar is the Global Currency
डॉलर आज के समय में एक वैश्विक मुद्रा – Global Currency बन गई है। जिसकी एक बड़ी वजह ये है कि दुनियाभर के केंद्रीय बैंको में अमेरिकी डॉलर स्वीकार्य है। और रिपोर्टस की माने तो दुनियाभर में देशों के बीच दिए जाने वाले 39 फीसदी कर्ज डॉलर में ही दिए जाते है। हालांकि डॉलर को हमेशा से वैश्विक मुद्रा का दर्जा प्राप्त नहीं था।
साल 1944 से पहले गोल्ड को मानक माना जाता था। यानी की दुनियाभर के देश अपने देश की मुद्रा को सोने की मांग मूल्य के आधार पर ही तय करते थे। लेकिन साल 1944 में ब्रिटेन में वुड्स समझौता हुआ। जिसमें ब्रिटेन के वुड्स शहर में दुनियाभर के विकसित देशों की एक बैठक हुई जिसमें ये तय किया गया कि अमरीकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओँ की विनिमय दर तय की जाएगी।
ऐसा इसलिए क्योंकि उस समय अमेरिका के पास दुनिया में सबसे ज्यादा सोने के भंडार थे। जिस वजह से बैठक मे शामिल हुए दूसरे देशों ने भी सोने की जगह डॉलर को वैश्विक मुद्रा बनाने और डॉलर के अनुसार उनकी मुद्रा का तय करने की अनुमति दी।
हालांकि इसके बाद कई बार डॉलर की जगह दोबारा सोने को मानक मांग उठाने की आवाज उठी। जिसमें से पहली आवाज साल 1970 में उठी जिसमें कई देशों ने मांग रखी कि डॉलर की जगह सोने को मांग शुरु कर दी थी। क्योंकि वो मुद्रा स्फीति से लड़ना चाहते थे। उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने स्थिति को देखते हुए डॉलर को सोने से ही अलग कर दिया था।
लेकिन तब तक डॉलर विश्व बाजार में अपनी पहचान बना चुका था। जिसमें लोगों के लिए विनमय करना सबसे सुरक्षित था। यही कारण है कि आज के समय में दुनिया भर के केंद्रीय बैंको में 64 प्रतिशत मुद्रा डॉलर में है। हालांकि डॉलर के वैश्विक मुद्रा होने का एक मुख्य कारण ये भी है कि उसकी अर्थव्यवस्था इस समय दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था है। अगर रिपोर्टस की बात करें तो इंटरनेशनल स्टैंडर्ड ऑर्गनाइजेंशन के अनुसार दुनियाभर में 185 करेंसियों का संचालन है।
लेकिन इनमें से ज्यादातर करेंसी केवल अपने देश तक ही सीमित है यानी की वो किसी ओर देश में नहीं चलती है। जिस कारण वैश्विक स्तर पर होने वाला 80 प्रतिशत व्यापार डॉलर में ही किया जाता है।
क्या डॉलर का कोई विकल्प है
डॉलर के बाद जो करेंसी दुनियाभर सबसे ज्यादा मान्य है वो है यूरो, ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका की ही तरह यूरोपीय यूनियन भी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थों में से एक है। दुनियाभर के केंद्रीय बैंको में डॉलर के बाद सबसे ज्यादा करेंसी यूरो है। बैंको में 19.9 प्रतिशत यूरो का भंडार है। साथ ही दुनियाभर के कई देशों यूरो को काफी इस्तेमाल किया जाता है।
हालांकि चीन और रुस जैसे बड़े देश भी अपनी करेंसी को वैश्विक करेंसी बनाने की पूर्जोर मेहनत कर रहे है। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा होने से उनके देश की आर्थिक स्थिति ओर भी मजबूत हो जाएगी। जिस कारण चीन काफी समय से नई वैश्विक मुद्रा की मांग आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा उठा रहा है। और शायद चीन आने वाले समय में कामयाब भी हो जाए क्योंकि साल 2016 में चीन की करेंसी यूआन दुनिया की डॉलर और यूरो के बाद एक ओर बड़ी करेंसी बनकर उभरी थी ।जिस वजह से चीन लगातार अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने में लगा हुआ हैं।
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शुरुआती कारोबार में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया आठ पैसे बढ़कर 81.25 पर पहुंचा
मुंबईः विदेशी बाजारों में डॉलर के कमजोर होने से सोमवार को शुरुआती कारोबार में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया आठ पैसे बढ़कर 81.25 के स्तर पर पहुंच गया। विदेशी मुद्रा कारोबारियों ने कहा कि घरेलू शेयर बाजारों में कमजोरी से रुपया प्रभावित हुआ, और उसकी बढ़त सीमित हुई।
अंतरबैंक विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में रुपया डॉलर के मुकाबले 81.26 पर खुला और पिछले बंद भाव के मुकाबले आठ पैसे की बढ़त के साथ 81.25 के स्तर पर पहुंच गया। रुपया शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले सात पैसे की गिरावट के साथ 81.33 पर बंद हुआ था। इस बीच, छह प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की स्थिति को दर्शाने वाला डॉलर सूचकांक 0.37 फीसदी गिरकर 104.15 पर आ गया।
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रिकॉर्ड लेवल पर गिर गया रुपया, इसे संभालने के लिए सरकार क्या कर सकती है? समझें
कई दिनों की लुका-छुपी के बाद आखिरकार रुपया ने 80 प्रति डॉलर के ऐतिहासिक स्तर के पार कारोबार करने लगा है। ऐसे में सवाल है कि डॉलर के मुकाबले लाचार दिख रहे रुपये की मजबूती के लिए सरकार क्या कर सकती है।
Indian Rupee vs Dollar: भारतीय करेंसी रुपया (Rupee falls) को लेकर जिसकी आशंका थी, वही हुआ। कई दिनों की लुका-छुपी के बाद अब रुपया 80 प्रति डॉलर के ऐतिहासिक स्तर के पार कारोबार करने लगा है। ऐसे में अब सवाल है कि डॉलर के मुकाबले लाचार दिख रहे रुपये की मजबूती के लिए सरकार ने अब तक क्या किया है और आगे क्या-क्या कर सकती है। आइए इसे समझते हैं.
अब तक क्या हुआ: हाल ही में केंद्रीय रिजर्व बैंक ने बैंकों से रुपया में आयात-निर्यात के निपटारे का इंतजाम करने को कहा है। अब तक आयात-निर्यात के लिए भारत डॉलर पर निर्भर है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस फैसले से लंबे समय में भारत की डॉलर पर निर्भरता घटेगी। ऐसे में डॉलर समेत अन्य विदेशी मुद्राओं की तुलना में रुपये में मजबूती आएगी जिससे आयात सस्ता होगा।
-हाल में रिजर्व बैंक ने विदेशी कोषों की आवक बढ़ाने के लिए विदेशी उधारी की सीमा बढ़ाने और सरकारी प्रतिभूतियों में विदेशी निवेश के मानक उदार बनाने की घोषणा की है। इससे भारत को लेकर विदेशी निवेशक आकर्षित होंगे।
सरकार क्या कर सकती है: रुपया को मजबूत करने के लिए सबसे बड़ी जरूरत विदेशी निवेशकों का भरोसा बढ़ाने की है। आंकड़े बताते हैं कि भारतीय शेयर बाजार से निकलने वाले विदेशी निवेशकों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर है। इस वजह से ना सिर्फ रुपया कमजोर हो रहा है बल्कि शेयर बाजार में लोगों के निवेश भी डूब रहे हैं।
आयात कम करना होगा: भारत को आयात पर निर्भरता कम करने की जरूरत है। आयात में जितनी कमी आएगी, डॉलर की उतनी ही ज्यादा सेविंग होगी। हमारे पास डॉलर जितना ज्यादा बचेगा, रुपया उतना ही मजबूत रहेगा। भारी आयात की वजह से डॉलर ज्यादा खर्च करना पड़ता है और इससे व्यापार घाटा भी बढ़ जाता है।
निर्यात को बढ़ाना होगा: आयात कम होने के साथ ही निर्यात को बढ़ाना होगा। हम विदेश में निर्यात जितनी करेंगे, डॉलर देश में उतना ही ज्यादा आएगा। हालांकि, कई बाद निर्यात पर कंट्रोल महंगाई को काबू में लाने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए बीते कुछ समय से सरकार ने गेहूं समेत कई चीजों के निर्यात पर सशर्त रोक लगा रखी है। सरकार का मकसद घरेलू बाजार में कीमतों को काबू में लाना है।
विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल: जब भी रुपया कमजोर होता है, केंद्रीय रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करता है। आरबीआई यहां से डॉलर बेचकर रुपया को मजबूत करता है। हालांकि, बीते कुछ समय से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार गिरावट आ रही है। बीते सप्ताह ही यह 15 माह के निचले स्तर पर था।
जानना जरूरी है: 2021 में एशिया की सबसे कमजोर मुद्रा बनी भारतीय रुपया, जानिए देश पर इसका क्या असर होगा?
नई दिल्ली। भारत के लिए साल 2021 कुछ अच्छा नहीं रहा। क्योंकि पहले GDP में गिरावट और अब साल के अंत तक भारतीय रूपया एशिया का सबसे कमजोर करंसी बन गया है। दरअसल, कोरोना के चलते विदेशी फंड देश के शेयरों से पैसा निकाल रहे हैं, जिसका बुरा असर साफतौर पर भारतीय मुद्रा पर पड़ा है।
विदेशियों ने 4 अरब डॉलर निकाल लिए
अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में भारतीय करेंसी में 2.2 फीसदी की गिरावाट दर्ज की गई है। जानकार बता रहे हैं कि वैश्विक फंडों ने देश के शेयर बाजार से कुल 4 अरब डॉलर निकाल लिए। जो आसपास के क्षेत्रीय बाजारों में सबसे अधिक राशि है। इसका असर ये हुआ कि एशिया के सबसे कमजोर करंसी में भारतीय रूपया शामिल हो गया।
कोरोना के कारण मार्केट में दहशत का महौल
दरअसल, कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉम के आने और भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान हुए नुकसान को देखते हुए वैश्विक बाजार में अफरा तफरी का महौल है। विदेशी निवेशक भारतीय शेयरों में से काफी बड़ी संख्या में पैसे निकाल रहे हैं। उन्हें डर है कि नए वैरिएंट के आने से कहीं उन्हें ज्यादा नुकसान न उठाना पड़े।
इस वर्ष रूपये में 4 प्रतिशत की गिरावट
गोल्डमैन सैक्स ग्रुप इंक और नोमुरा होल्डिंग्स इंक ने भारतीय बाजार के लिए हाल ही में अपने आउटलुक को कम कर दिया है। इसके लिए उन्होंने उंचे मूल्यांकरन का हवाला भी दिया। रिकॉर्ड हाई व्यापार घाटा और फेडरल रिजर्व के साथ केंद्रीय बैंक की अलग नीति ने भी रूपये की कैरी अपील को प्रभावित किया। ब्लूमबर्ग के ट्रेडर्स और एनालिस्टों के सर्वे के मुताबिक, रूपया 76.50 पर पहुंच सकता है। यानी इस रूपये में 4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।
इस वर्ष रूपया कमजोर हो गया, इस बात को सुनकर आपके मन में भी ये सवाल आया होगा कि आखिर इससे देश को क्या नुकसान होगा, तो चलिए आज हम आपको बताते हैं कि रूपये के कमजोर होने या मजबूत होने से देश को क्या फायदा या क्या नुकसान होगा।
इस कारण से रूपया कमजोर या मजबूत होता है
सबसे पहले जानते हैं रूपया कमजोर या मजबूत क्यों होता है? बता दें कि रूपये की कीमत पूरी तरह इसकी मांग एवं आपूर्ति पर निर्भर करती है। इस पर आयात और निर्यात का भी असर पड़ता है। हर देश के पास दूसरे देशों की मुद्रा का भंडार होता है, जिससे वे लेनदेने करते हैं। इसे विदेशी मुद्रा भंडार कहते हैं। रिजर्व बैंक समय-समय पर इसके आंकड़े जारी करता है। विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा पर असर पड़ता है। साल 2021 में इसी विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आई है। यानी निवेशकों ने यहां से अपने पैसे निकाल लिए हैं।
ऐसे पता चलता है, रूपया कमजोर है या मजबूत
मालूम हो कि अमेरिकी डॉलर को वैश्विक करेंसी का रूतबा हासिल है। इसका मतलब है कि निर्यात की जाने वाली ज्यादातर चीजों का मूल्य डॉलर में चुकाया जाता है। यही वजह है कि डॉलर के मुकाबले रूपये की कीमत से पता चलता है कि भारतीय मुद्रा मजबूत है या कमजोर। अमेरिकी डॉलर को वैश्विक करेंसी इसलिए भी माना जाता है, क्योंकि दुनिया के अधिकतर देश अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में इसी का प्रयोग करते हैं। दुनिया के ज्यादातर देशों आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा में आसानी से इसे स्वीकार्य किया जाता है।
भारत के ज्यादातर बिजनेस डॉलर में ही होते हैं
अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में भारत के ज्यादातर बिजनेस डॉलर में ही होते हैं। यानी अगर देश को आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा अपनी जरूरत का कच्चा तेल (क्रूड ऑयल), खाद्य पदार्थ, इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम आदि विदेश से मंगवाना है तो उसे डॉलर में इसे खरीदना होता है। ऐसे में अगर विदेशी मुद्रा भंडार कम है आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा तो रूपये के मुकाबले डॉलर और कही ज्यादा मजबूत हो जाता है। इसका असर ये होता है कि हमें सामान खरीदने के लिए और अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं। अधिक पैसे खर्च करने का मतलब है भारत में सामान का दाम बढ़ जाना। जिसका सीधा असर आम नागरिक की जेब पर पड़ता है।
डॉलर के भाव में 1 रूपये की तेजी से इतना पड़ता है भार
बता दें कि भारत अपनी जरूरत का करीब 80% पेट्रोलियम उत्पाद आयात करता है। ऐसे में रूपये में गिरावट से पेट्रोलियम उत्पादों का आयात महंगा हो जाता है और इस वजह से तेल कंपनियां पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ा देती हैं। एक अनुमान के मुताबिक डॉलर के भाव में एक रूपये की वृद्धि से तेल कंपनयों पर 8 हजार करोड़ रूपये का बोझ पड़ता है।
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